फाइनेंसियल इनइक्वलिटी इन हिन्दू मैरिज


पितृसत्ता एक पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था है जो पुरुषों के स्वाभाविक रूप से प्रभावी होने और परिवार को नियंत्रित करने के अधिकार को परिभाषित करती है। यह सभी धर्मों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे विभिन्न तरीकों से परिलक्षित किया गया है।

हमारे हिंदू पितृसत्तात्मक समाज में दहेज विरोधी धारा IPC 498A के दुरुपयोग को एक पल के लिए  भूल भी जाएं, तो ज्यादातर महिलाओं को मुख्य रूप से एक आर्थिक रूप से व्यवस्थित जीवनसाथी की तलाश होती है। अधिकांश मामलों में उन्हें व्यक्तिगत रूप से जीवनयापन के लिए पति पर निर्भर बनाया जाता है और कुछ मामलों में उन्हें असफल विवाह के टोल से जूझना पड़ता है।


इस लेख के माध्यम से आप पतियों पर हो रहे वित्तीय शोषण की कुछ झलक पाएंगे जहाँ स्पष्ट रूप में समानता बिल्कुल भी मौजूद नहीं होती है। ये अंग्रेजी में लिखे मेरे लेख "फाइनेंसियल इनइक्वलिटी इन हिन्दू मैरिज" का हिंदी संस्करण है। इस तरह के औऱ भी बहुत सारे लेख मेरे हिन्दू मैरिज ब्लॉग marriage.sudeshkumar.com पर उपलब्ध है।

फाइनेंसियल सिस्टम जो अर्थव्यवस्था से एक व्यक्ति को जोड़ती है समानता लाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आजकल इंटरनेट और फाइनेंसियल टेक्नोलॉजी के आने के बाद विकासशील देशों के कई हिस्सों में समानता का स्वर कुछ स्तर पर एक व्यावहारिक उदाहरण बन गया है। हालांकि पुरुषों को अभी भी बस पैसे कमाना, घर के लोगों का भरण-पोषण तथा सभी बिलों का भुगतान करने के लिए बचपन से ही तैयार किया जाता है।

जब एक लड़की अविवाहित होती है उसके चार समस्याएँ होती हैं और उसके मंगेतर को छह समस्याएं होती हैं। इनके शादी होने के तुरंत बाद आदमी की समस्याएँ अपने आप दस हो जाती हैं क्योंकि विवाहित पुरुषों को परिवार की समस्याओं को उठाने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।

पुरुषों को पारंपरिक रूप से पारिवारिक समस्याओं, बच्चों की शिक्षा, घर के रख-रखाव और जीवन के लगभग सभी प्रावधानों का ध्यान रखने के लिए संघर्ष करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, बदले में उन्हें घर का खाना, देखभाल और नियमित सेक्स मिलता है। जहां कि महिलाओं को बस उनके पति की हर हालात में साथ निभाने की शिक्षा दी जाती है। हिंदू विवाह में कन्यादान अनुष्ठान के रूप में एक प्रतिगामी प्रथा है, जो कि प्राचीन काल से ही महिला अधिकारों की विरोधी है। जिसमें महिलाओं को एक हस्तांतरणीय संपत्ति के रूप में माना जाता है, यह इस वित्तीय असमानता को बनाए रखने के लिए आधारशिला है।

कोई भी आदमी जो ऊपर लिखे चीज़ों को नही करता, उसे सामाजिक रूप से गैर-जिम्मेदार करार दिया जाता है। लेकिन कोई भी ऐसे टैग के साथ एक महिला को नही बुलाता है, जो अपने घर में फाइनेंसियली कंट्रीब्यूट नहीं करती है। दूसरी तरफ अगर वह ऐसा करती भी है तो उसे घर-समाज में कोई ज्यादा सराहना नही मिलती है।

अधिकांश मामलों में वित्तीय निर्भरता मुख्य रूप से बेमेल विवाहों में तलाक की समस्या को कम करती है, लेकिन इन चुनौतियों और असमान संघर्ष के कारण, पुरुष तेजी से घिसते हैं और शायद तनाव के परिणामस्वरूप जल्दी मर जाते हैं। इसलिए पुरुषों के लिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि वे अपनी पत्नियों को उन्हें परिवार की ऐसी प्रतिबद्धताओं में धकेलने की अनुमति न दें जो कि वह अपने नौकरी या व्यवसाय में भ्रष्टाचार किये बिना लंबे समय तक पूरा नही कर सकते। यदि आप करते हैं, तो आप तनाव और निरंतर पारिवारिक अशांति के जोखिम को झेलते हैं। अधिकांश पुरुष अपने बच्चों के स्नातक होने या एक ही अवधि में सेवानिवृत्त होने तक सभी संघर्षों को अपने स्वास्थ्य और जीवन पर गंभीर रूप से झेल लेते हैं और समय से पहले ही मर जाते हैं।

जब बच्चे वयस्क हो रहे होते हैं तो महिलाएं आपके खर्च पर उन पर अधिक ध्यान देती हैं। वास्तव में वह उनमें आपकी उपयोगिता का रिप्लेसमेंट के रूप में देख रही होती है। यह किसी तरह से निभने वाले विवाहों में और भी भयानक होता है। मनुस्मृति नाम के विवादास्पद हिंदू धर्मशास्त्र ने एक महिला को किसी भी रूप में चाहे वो बेटी / बहन / पत्नी / मां हो, उनके संरक्षण का प्रदाता पुरुष को पिता / भाई / पति / पुत्र के रूप में बताया है। इसलिए जब आपका बेटा युवा अवस्था में आ जाता है एवं आपके जूते और कपड़े का साइज बेटे को लगभग फिट होने लगते हैं तो आपकी पत्नी अपने आप को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है। आप जानते हैं कि इसका क्या मतलब है? जो लोग आपको फाइनेंसियल रूप से रिप्लेस कर सकते हैं, वे पहले से ही तैयार हैं।

जैसे-जैसे आप अपने रिश्ते में समय के साथ बड़े होते जाते हैं, बच्चों के साथ पत्नी के मजबूत मनोवैज्ञानिक संबंध पर विचार करके सावधान रहें और अपने घर में दरार पैदा करने से बचें। अपनी पत्नी के साथ शांति से रहें, यदि आप अपने बची-खुची जिंदगी को बेरूखी में नहीं डालना नही चाहते तथा अपनी उपयोगिता को बरकरार रखना चाहते हों। जैसे कि कितने पारिवारिक फिल्मों (जॉगर्स पार्क) में दिखाया जाता है कि महिलाएं अपने ओल्ड ऐज में आध्यात्मिक रूप से अग्रसर होती जाती हैं जो कि समाज में आदर्श माना जाता है। दूसरी ओर ज्यादातर पुरुष बुढ़ापे में भी अपनी निजी जरूरत आधारित मानसिकता से बाहर नही निकल पाते हैं।

सुदेश कुमार

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