सपने जिसने देखे थे #मानवता के विस्तार के।। #नानक जैसे महा-संत थे वाचक शाकाहार के॥
उठो जरा तुम पढ़ कर देखो गौरवमयी #इतिहास को।। #आदम से #गाँधी तक फैले इस नीले आकाश को॥
दया की आँखे खोल देख लो पशु के करुण क्रंदन को।। #इंसानों का जिस्म बना है #शाकाहारी भोजन को॥
अंग लाश के खा जाए क्या फ़िर भी वो इंसान है? पेट तुम्हारा #मुर्दाघर है या कोई #कब्रिस्तान है?
#आँखे कितना रोती हैं जब उंगली अपनी जलती है।। सोचो उस तड़पन की हद जब #जिस्म पे आरी चलती है॥
बेबसता तुम पशु की देखो बचने के आसार नही।। जीते जी #तन काटा जाए, उस पीडा का पार नही॥
खाने से पहले #बिरयानी, चीख जीव की सुन लेते।। करुणा के वश होकर तुम भी #शाकाहार को चुन लेते॥
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