कमाठीपुरा सेक्स वर्कर्स की दुनिया और इस पर बनी बॉलीवुड फिल्में।


ब्रिटिश काल के सं 1924 में स्थापित कमाठीपुरा शुरुवात से ही बॉलीवुड फिल्मों के प्रोमोशन तथा यहाँ से जुड़े कहानियों के लिए सबका ध्यान बटोरता रहा है। यह एशिया का सबसे पुराना रेडलाइट एरिया है जहाँ हालात से  मज़बूर गरीब प्रदेशों से लाई गई लड़कियाँ 'सिंदूर-साड़ी-मंगलसूत्र' के कवच में अपने बदन को एक सेक्स मशीन के रूप में हर घंटे एक नए ग्राहक को परोसती हैं।

यहाँ आपके ज़ेहन में सवाल आता होगा कि हमारी सरकार जब मैट्रो और स्मार्ट सिटी बना सकती है तो इस रेडलाइट एरिया को बंद क्यों नहीं करती है? जैसा कि हम सब जानते हैं प्राचीनकाल से अलग-अलग समाज में मूलभूत जरूरतों के अनुसार जरूरी नियम और संस्थाएँ बनाई गई हैं। इनमे से प्रमुख स्थान विवाह का है जो कि अब तक एक आदर्श सामाजिक संरचना की रीढ़ रही है। पर व्यावहारिक रूप से विचार करें तो ये हमारे मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर काम करती हैं। आसान शब्दों में कहें तो सेक्स की डिमांड और सप्लाई का असमान अनुपात तथा हमारी रूढ़िवादी सभ्यता वैश्यावृत्ति के प्रमुख कारण हैं। आज ये व्यवसाय दुनिया के कोने-कोने में फैला है शायद ही कोई ऐसी जगह होगी जहाँ ये धंधा चोरी-छिपे नहीं चलता हो।


मेरा यह लेख मुम्बई सेक्स बाजार के रील और रियल दुनिया के ऊपर लिखी गयी है। इसे मैंने कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं के अनुरोध पर लिखा है जो कि भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं पारिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से HIV के रोक-थाम के लिए कार्य करते हैं। इसका पार्ट-1 वेश्याओं की जिंदगी पर बनी बॉलीवुड के 12 पॉपुलर मूवीज़ के बारे में है और पार्ट 2 एक रियल जिंदगी के ऊपर आधारित है। इस तरह के अन्य पोस्ट के लिये मेरे हिन्दी ब्लॉग: hindi.sudeshkumar.com पर लॉगिन करें।

पार्ट-1

उमराव जान (1981) सबसे ज्यादा समीक्षकों द्वारा प्रशंसित फिल्मों में से एक है जो भारतीय समाज में एक नाबालिग लड़कियों के शोषण को दर्शाता है। फ़िल्म की कहानी एक लड़की के बारे में है जिसे अगवा किया जाता है और फिर उसके पड़ोसी द्वारा उसे कोठे पर बेच दिया जाता है।

चोरी-चोरी चुपके-चुपके (2001): यह एक अशिक्षित, गवांर औऱ मुँहफट सेक्स वर्कर की कहानी है जो अपने सहमति से एक निःसंतान दंपत्ति को लाख रुपये के बदले में उनके साथ विदेश में रहने और बच्चे देने के लिए प्रेगनेंट होती है। लेकिन प्रेग्नेंसी के बाद चीजें बदल जाती हैं जब वह अपने खुद के बच्चे और लाइफ पार्टनर के लिए भावनाओं और सपने के भंवर में फंसती जाती है।

काली सलवार (2002) फ़िल्म में बहुत सारे फैंसी सपनों में पागल किसी छोटे शहर से आयी एक सेक्स वर्कर और उसके दलाल पार्टनर के संघर्ष की कहानी है। जो बेहतर रोजगार के अवसर की तलाश में मेट्रो शहर की ओर पलायन करते है।

मार्केट (2003): यह फिल्म अरब शेखों से शादी के झांसे में नाबालिग भारतीय मुस्लिम लड़कियों के ट्रैफिकिंग और बलात्कार के मुद्दे पर बनाया गया है। पूरी कहानी आधुनिक कॉलगर्ल की कहानी का अनुसरण करती है जिन पर हमारे संकीर्ण सोच वाले समाज, पुलिस और जस्टिस सिस्टम के द्वारा अन्याय किया जाता है। और फिर अपने जीवन में कैसे वो बदला लेने के लिए हिंसक रास्ते का इख्तियार करती है।

चमेली (2003) एक महिला सेक्स वर्कर होती जो अपने जिंदगी में स्ट्रांग फिलोसफी से प्रेरित होती है जिससे वह अपने आस-पास के लोगों को प्रभावित करती है। यहाँ सेक्स वर्कर्स के अपने कुछ एक कस्टमर के साथ हए रिश्ते, एथिक्स और मज़बूत इमोशनल सपोर्ट को दिखाया गया है जो कि अन्य फिल्मों जैसे कि 'दिल-दोस्ती-ईटीसी' में भी दिखाया गया है।

जूली (2004): यह एक सभ्य लड़की का संघर्ष है जो अपने बॉयफ्रेंड से ब्रेकअप के बाद एक बेहतर भविष्य की तलाश में गोआ से मुंबई चली जाती है। वहाँ उसे वर्कप्लेस पर सेक्सुअल हरैसमेंट झेलना पड़ता है। जिंदगी के इन संघषों के कारण वह प्यार में विश्वास खो देती है और एक हाई प्रोफाइल कॉल गर्ल बनने का फैसला करती है। आगे उसकी जिंदगी में नया मोड़ आता है जब एक बिज़नेस टाइकून को उससे प्यार हो जाता है जो कि उसके कॉलगर्ल के बैकग्राउंड को नकारते हुए एक रियलिटी टेलीविजन शो में उससे शादी करने का घोषणा करता है। इसको वो सामाजिक अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए एक सच्चें कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (CSR) कमिटमेंट बताता है।

देव-डी (2009) फिल्म एक लड़की के छात्र जीवन मे संघर्ष के बारे में है। जो अपने परेशानियों से निजात पाने के लिए दोहरी जिंदगी जीती है। दिन में एक स्टूडेंट बन कर कॉलेज जाती है और रात में एक वेश्या का काम करती है।

बेनी और बबलू (2010): यह एक सस्ते बजट की फिल्म है जो कि बेनी और बबलू नाम के दो दोस्तों की ज़िंदगी पर आधारित है। बेनी एक फाइव स्टार होटल का वेटर होता है। बबलू काम की तलाश में गाँव से मुम्बई आया हुआ एक भोला-भाला लड़का होता है और उसे एक डांस बार में वेटर की नौकरी मिलती है। यहाँ डांस बार से लेकर फाइव स्टार होटलों में चल रहे पुलिस रेड, ड्रग्स, क्राइम और वेश्यावृत्ति के इकोसिस्टम को दिखाया गया है।

लक्ष्मी 2014 में रिलीज हुई छोटी बजट की हिंदी फिल्म है। यह कहानी दक्षिण भारत के एक 13 साल की लड़की के संघर्ष यात्रा को दिखाती है जिसका अपहरण और बलात्कार होता है। फिर कोर्ट में ट्रायल के दौरान विटनेस के द्वारा ये बताया जाता है कि उनके सामाजिक मान्यता के अनुसार जब कोई एड्स का मरीज एक कुँवारी लड़की के साथ सेक्स करे तो वो ठीक हो सकता है। और अंततः पीड़िता वेश्यावृत्ति के कारोबार में फंस जाती है।

यारा सिली सिली (2015) एक महिला सेक्स वर्कर और उसके एक चहेते ग्राहक की कहानी है जिसमें पहली एक रात साथ बिताने के बाद उन्हें प्यार हो जाता है और फिर से एक-दूसरे से मिलते हैं। औऱ आगे वे एक दूसरे के साथ बेहतर भविष्य और सच्चे रिश्ते की परिकल्पना करते हैं जो उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल देता है।

लागा चुनरी में दाग (2017) फिल्म में एक महत्त्वकांक्षी लड़की की कहानी दिखाई गई है। जो नौकरी की तलाश में मुंबई आ जाती है औऱ वह शहर में कठिन संघर्षों से परेशान हो कर एक हाई प्रोफाइल कॉलगर्ल बनने के लिए मजबूर हो जाती है।

बेगम जान (2017): एक क्लासिक फ़िल्म है। यह 1947 के परिदृश्य में पारंपरिक सेक्स वर्कर्स की कहानी पर बनी है। जो अपने कोठे को ध्वस्त होने से बचाने के लिए संघर्षरत होती है जिसे आज़ादी के पहले एक ऐसी जगह पर बनाया गया था जो आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान की नई सीमा डिक्लेयर कर दी जाती है।


पार्ट - 2


एक सच्ची घटना पर आधारित है। इसे पढ़कर बॉलीवुड की ऊपर लिखे उन चंद फिल्मों की याद आ जायेगी जो वेश्याओं की सच्ची कहानी को बेचकर अच्छे बिज़नेस तो करते हैं पर रेडलाइट एरिया में काम करने वाले किसी सोशल वर्कर या पॉलिटिशियन को नहीं जन्म देते। जिसके कारण इनके हित के मुद्दे बस फ़िल्मी एंटरटेनमेंट तक सिमट कर रह जाते है।

यह कहानी कमाठीपुरा से निकली किसी हाई क्लास फैंसी मॉडल या एक्ट्रेस की नही है बल्कि वहां काम करने वाली 40 साल की एक सोशल वर्कर की है जो अपने जिंदगी में बेलगांव से बॉम्बे तक का सफर इस रेडलाइट गलियों से हो कर तय करती है।

देविता एक कन्नड़ परिवार में जन्मी एक सीधी-साधी गाँव की लड़की का नाम है। जो अपने पारिवारिक गरीबी के कारण प्राइमरी स्कूल में ही ड्राप-आउट बन जाती है और फिर शादी के नाम पर 14 साल की कम उम्र में घर गृहस्थी का बोझ झेलना, अपना भाग्य समझ कर आम भारतीय लड़कियों के तरह स्वीकार कर लेती है। अगले तीन साल में उसने तीन बच्चों को जन्म दिया और पति के अचानक गुजर जाने के बाद 20 साल की उम्र में घर चलाने के लिए जाने-अनजाने में खुद का ही सौदा कर डाला।

देविता का आर्थिक बदहाली के कारण ट्रैफिकिंग का शिकार बनना फिर अपनी ही मुम्बई में बसी चचेरी बहन के द्वारा कमाठीपुरा के कोठे में बेच दिया जाना और अगले 5 साल तक पिंजरे जैसे छोटे कोठरियों में कैद होकर धंधा करना सुनने में किसी हिंदी फ़िल्म का स्क्रिप्ट से कम नहीं लगता है जो कि उसने जिया।

मिलेनियम इयर 2000 बहुत सारे अच्छे के साथ-साथ कुछ बुरी चीजों के लिए भी याद किया जाता है। इसी साल में जब देविता को जबरदस्ती देह-व्यापार के धंधे में लगाया गया था। उस समय वो ₹3000-₹5000 कमा कर हर दिन अपने कोठेवाली को देती थी और बदले में उसे कालकोठरियों में कैद रहकर दो टाइम का खाना, कपड़ा और एक बिस्तर नसीब होता था। ऐसा 5 साल तक चलता रहा। उसके बाद एक ग्राहक दोस्त के सहयोग से उसको अपनी कमाई का कुछ हिस्सा मिलना शुरू हुआ।

HIV पॉजिटिव (एड्स) बीमारी और टर्निंग पॉइंट।

साल 2006 में बरसात के समय एड्स कैंपेन से प्रभावित होकर किसी ग्राहक दोस्त ने देविता (25) और उसकी साथी शहनाज़ (17) का HIV टेस्ट करवाया। उस टाइम कम पढ़े लिखे होने के कारण इसका मतलब भी इन्हें पता नहीं था। मेडिकल टेस्ट में देविता को नेगेटिव और शहनाज़ को पोज़िटिव आया और उन्हें कंडोम उपयोग करने की सख्त सलाह दी गयी। HIV से ग्रसित शहनाज़ को कोठे की मालकिन ने मार-पीटकर बाहर निकल दिया और उसका स्वास्थ्य प्रतिदिन गिरता चला गया। हालात से मजबूर होकर शहनाज़ ने VT रेलवे स्टेशन पर भीख मांगकर अपनी जिंदगी के बचे-खुचे कुछ महीनों को किसी तरह जिया। अज्ञानता में संक्रमण के डर से किसी ने उसकी मदद नही की और इस कारण खुद देविता ने भी ना चाहते हुए उससे अलग रहने में अपनी भलाई समझा। इस दौरान कोठे की मालकिन ने पैसे के लालच में देविता और उसके साथ रहने वाले सभी 25 लड़कियों को अनप्रोटेक्टेड सेक्स करने के लिए मज़बूर किया। जिसके कारण इनमें से 4 अन्य लड़कियां भी HIV की शिकार हो गयी और रातों-रात उन्हें कोठे से गायब कर दिया गया। इस घटना ने देविता को अंदर से इतना झकझोड़ दिया और उसने वेश्यावृत्ति को छोड़कर ऐसे लाचार लोगों के लिए काम करने का दृढ़ निश्चय किया। शुरूवात में उसने एक लोकल NGO को वालंटियर के रूप में जॉइन किया।

देविता ने बताया कि आज तक अपने 11 साल के सोशल वर्क के कैरियर में उसने हजारों मज़बूर और लाचार सेक्स वर्कर्स के लिए काम किया है। वो हेल्थ प्रॉब्लम के साथ-साथ अपने ग्रुप मेंबर्स को आइडेंटिटी कार्ड और बैंक एकाउंट पाने में मदद करती है। कुछ केस में उसने अनवांटेड प्रेगनेंसी से जन्मे बच्चों के एडॉप्शन के अलावा अनाथालयों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिये एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सरकार के सपोर्ट से चलाई जाने वाले सेल्फ-हेल्प-ग्रुप के माध्यम से आजकल वो 2000+ सेक्स वर्कर्स के लिए काम करती है।

भविष्य में देविता अपने टीम के सहयोग से 'संक्रमित सेक्स वर्कर्स' के लिए एक शेल्टर होम बनाना चाहती है क्योंकि उसने देखा कि बीमारी के स्थिति में सेक्स वर्कर्स की रिस्पांसिबिलिटी लेने के लिए कोई भी संस्था अथवा सरकारी विभाग काम नहीं कर रहे हैं और यहाँ तक कि सेक्स वर्कर्स की एक्सीडेंटल या बीमारी से मृत्यु की स्थिति में पुलिस को छोड़कर कोई भी व्यक्ति या संस्था सामने नही आते हैं।

आज टेक्नोलॉजी के बढ़ते कदम और स्मार्ट फ़ोन ने मुम्बई के सेक्स मार्किट को पूरी तरह बदल कर रख दिया है। इन एरिया में काम कर रहे सोशल वर्कर्स के अनुसार लगभग 85 से 90 प्रतिसत सेक्स वर्कर्स स्मार्ट फ़ोन में व्हाट्सएप और यूट्यूब का उपयोग करते हैं। दलालों से परेशान होकर समय के अनुरूप कुछ ने ऑनलाइन प्रोफाइल बनाना और वीडियो शेयर करना भी सीख लिया है। गैर-सरकारी संस्थाओं के सहयोग से लगभग 99 प्रतिशत सेक्स वर्कर्स के पास उनके पर्सनल बैंक एकाउंट है।

सुदेश कुमार

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